Thursday, September 23, 2010

साइकिल रिक्शे पे बैठना गुनाह लगता है.........

साइकिल रिक्शे पे बैठना गुनाह लगता है, लगता है की ये अपने आप में एक बड़ी सामाजिक त्रुटी है की एक आदमी दुसरे आदमी को जानवर की तरह खीच रहा है, रोज सुबह काम पे निकलते वक़्त दिन की शुरवात साइकिल रिक्शे पे बैठ के ही होती है और मन एक अपराध भाव से भर उठता है, जैसे रोज सुबह की शुरवात मै एक गुनाह से कर रहा हु. पर फिर दूसरा ख्याल ये आता है की अगर सब लोग इसे इस्तेमाल करना बंद करदे तो ये लोग क्या करेंगे, कहा जायेंगे, आज की तारीख में License और बगैर License मिला कर सिर्फ दिल्ली में ही ५ लाख के ऊपर साइकिल रिक्शा होंगे, उत्तर प्रदेश, कोलकाता, रायपुर या अन्य जगह पर भी ऐसी ही तादात में होंगे,
पता नहीं उनकी कमाई कितनी होगी, मैंने तो लोगो को इनसे भी मोलभाव करते देखा है, शायद उनकी भी कोई मज़बूरी होगी, ऊपर से उन्हें पुलिस के साथ भी सहयोग करना पड़ता है वरना उनका नियत स्थान पे खड़े होकर धंदा करना मुश्किल है, पुलिस न सिर्फ उन्हें उनकी नियत जगह से खदेडती है बल्कि कई बार जानवरों जैसे पिटती भी है,

मैंने अक्सर लोगो को खासकर कार वालो को इन्हें कोसते हुवे या गालिया देते हुवे सुना है, क्योकि ये यातायात के नियमो का पालन नहीं करते है ( गोया कार वाले पालन करते है) या फिर traffic सिग्नल तोड़ कर मनमाने तरीके से कही भी घुस जाते है, पर फिर लगता है की ये लोग जब एक बार गति खो देते है तो उन्हें वापस काफी मशक्कत करनी पड़ती है वापस अपनी गति में आने के लिए, और ये भीड़ की वजह से कई बार होता है,

दूसरी बड़ी समस्या इनकी अपनी आदतों को लेकर है आज अमूमन हर साइकिल रिक्शे वाला या तो बीडी पिता है या फिर गुटके की लत का शिकार है और शायद बहुतांश लोग शराब भी पिते है, जिसकी वजह से न तो ये अपने परिवार को ठीक से रख पते है और न ही अपनी सेहत को, जो आगे जाकर न सिर्फ इनका काम बंद करवा सकती है बल्कि इनके परिवार को भी सड़क पे आने से मजबूर कर सकती है, इसके अलावा कई ऐसी बाते है जो इन्हें शायद पता नहीं है और न ही कोई इन्हें बता रहा है, जैसे इनका खुदका स्वास्थ्य और इनके परिवार का भी, बच्चो को लगाने वाले महत्वपूर्ण टिके, इनके बच्चो को शिक्षा ( जो सरकारी स्कूल में इन्हें मुफ्त मिलेगी साथ में खाना भी ) पैसो की बचत या फिर सरकार से मिलने वाली भिन्न भिन्न योजनाये और उनको पाने के तरीके,

दिन प्रतिदिन बढ़ने वाली आबादी और रोजगार की समस्या इनकी संख्या में बेइंतेहा इजाफा कर रही है और धीरे धीरे ये एक विकराल समस्या का रूप धारण कर रही है,

अगर हम इसके फायदे ढूंढे तो एक दो काफी महत्वपूर्ण मुद्दे सामने आते है जैसे ये प्रदुषण मुक्त है और पर्यावरण का संतुलन रखने में सहयोग करते है जो की आज अपने आप में काफी बड़ी समस्या है और उसका हल धुंडने में हमारे पसीने निकल रहे है, और दूसरा अहम् मुद्दा ये है की इससे काफी बड़ी तादात में लोगो को रोजगार मिल रहा है और ये लोग खुद का और अपने परिवार का पेट भर पा रहे है.

खैर जो भी हो इनका पुनर्वसन करना बहुत जरुरी है, शायद सबसे बड़ी चुनोती न सिर्फ इनको दूसरा काम देने की होगी पर उससे कही ज्यादा मुश्किल इनको समझाने में होगी.

मुझे उम्मीद है की एक न एक दिन हम इसका हल धुंड निकालेंगे और इन्हें खुशहाली और स्वास्थ्य की सौगात देंगे.

2 comments:

  1. आपकी पोस्ट के शीर्षक से सहमत होने के कारण ही इस पोस्ट पर नजर पड़ी। निजी स्तर पर मुझे भी बहुत कोफ़्त होती है रिक्शा पर बैठने में, तर्क वही कि इंसान द्वारा इंसान को खींचा जाना। लेकिन देखा जाये तो भूखे मरने से या मरते रहने देने से तो बेहतर ही है यह। दिल्ली और कई जगह पर लाईट्वेट रिक्शा चलन में आये हैं जो इनकी श्रम शक्ति बचाते हैं, कानपुर में एक बैंक द्वारा रिक्शा खरीदने के लिये ॠण देने की पोज़िटिव खबर भी पढ़ी थी। प्रदूषण मुक्ति वाली बात आपने लिख ही दी है। ओवर आल में रिक्शा चलाने से भी और रिक्शा में बैठने से भी बचाव नहीं है, प्रयास यही किये जा सकते हैं कि इस फ़ील्ड में भी तकनीकी, आर्थिक रूप से सुधार हों।
    अच्छा विशय उठाया आपने।
    एक सुझाव आपके लिये, वर्ड वैरिफ़िकेशन हटा दीजिये, टिप्पणी करने वाले के लिये यह असुविधाजनक है।

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  2. Abhay,

    nice post - thought provoking. I have often pondered about this issue - both on the morality of riding a vehicle being pulled by another human & also how often people haggle for 5/- with rickshaw wallas.

    The second one is easier to solve for yourself - I dont bargain with rickshaw wallas and I actively dissuade people from doing it. The value of 5-10/- is more for the rickshaw walla than most of us, even if you think he's going to blow it in smoke or liquor that evening.

    The first one is more difficult to resolve or come to terms with. I have reasoned to myself that I could never sit on the old Calcutta rickshaw where you're almost riding on the poor guy's back as he pulls the rickshaw like an ox. For the cycle rickshaw, I reason that I pay him for physically driving a mechanized vehicle - and am respectful of the energy that he puts in. It is not the person's fault (mostly) if he does not have the resource to buy an auto rickshaw or get into an "easier" profession. But the solution lies in making these rickshaw's more energy efficient (may be even battery operated). At the same time, there are laws that need to be cleaned up. There are laws that make getting finance on rickshaws difficult - or even buying a second rickshaw illegitimate ! These guys need to rehabilitated - not in the sense of finding another profession - but in terms of saving them from criminal elements, drug abuse and police vandalism.

    An essay by Mark Tully also made me make note of how poorly we treated them - and how, for years, our engineers had paid no heed to innovate these rickshaws to make them more efficient - not unless the lighter Chinese models, which are now most popular, came.

    Good writing - keep it up!

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