Saturday, February 5, 2011

मन फिर भागता है बचपन की ओर

मन फिर भागता है बचपन की ओर

वो गली में खेलना गिल्ली डंडा और कंचे

या फिर भागते रहना एक दुसरे के पीछे

बार बार गिरना और घुटनों का फूटना

और तकलीफ दर्द की नहीं सिर्फ माँ के डाटने की

अँधेरा गहराते ही डर सताता था अँधेरे का नहीं

घर में पिताजी पढाई के बारे में पूछेंगे उसका



बड़ा अच्छा था वो बचपन जब साथी

सब कुछ लगते थे.... शायद

माँ बाप से भी बढ़कर क्योंकि

वो नहीं पूछते थे पढाई के बारे में

और शायद ही किसी को तकलीफ़ हुई हो

किसी और के नंबर १ होने की

ये तो अब हम जलते है एक दूसरे से एक दूसरे की

तरक्की से और उसे professional approach कहते है



अब भी याद है गर्मियों की रात

जब आता था वो कुल्फी वाला

मटके में लेकर कुल्फी जिसके चारो और होता था

लपेटा हूवा वो लाल कपड़ा

और लालटेन की रोशनी से दमकता हुवा उसका चेहरा

बड़े प्यार से हमें कुल्फी खिलाता था वो



पता नहीं जिंदगी में बचपन सिर्फ एक ब़ार क्यों

आता है और वो भी सिर्फ थोड़े समय के लिए


मन फिर भागता है बचपन की ओर

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