Sunday, February 6, 2011

पहाड़ो में रात कुछ जल्दी आती है

आज कुछ यु ही भटकता रहा दिन भर पहाडियों में
मै भी और मेरा मन भी

चलता रहा उन पगडंडियों पर जो शायद बनी है
चरवाहों के रोज एक ही राह पे चलने से
शायद भेड़ो के साथ रह रह के वो भी एक ही राह चलने लगे है
अब तो लगता है मै भी कुछ उसी राह पे चल रहा हु

मै हर उस राह पर चला जो मुझे तुम्हारी ओर ले जाती थी
या फिर शायद मेरी हर राह तुम्हारी ओर ही जाती है

कई बार मै यु ही गिनता रहा देवदार के उन दरख्तों को
जो अब भी अविचल खड़े है ओर लगता है सदियों तक ऐसे ही खड़े रहेंगे

मुझे रश्क हो आया उनकी दीवानगी पे
पता नहीं किसका इंतजार कर रहे है वो

देवदार मुझे बड़ी अजीब निगाहों से देखते रहे
जैसे उन्हें भी मेरी दीवानगी समझ में आ रही हो

पता नहीं कब तक यु ही सोचते हुवे भटकता रहा
या भटकते हुवे सोचता रहा

सुनाई दी जब दूर से गिरजे की घंटिया तब पाया
की शाम के धुंधलके में साये लम्बे होने लगे है
ओर किसी पहाड़ी के ऊपर उठ रही है धुवे की लकीरे

इसके पहले की चाँद आकर मुझसे सवाल पूछे
मुझे अब वापस लौट जाना चाहिए

लगता है शायद अब तुम भी नहीं आओगे
वैसे गलती तुम्हारी नहीं है

पहाड़ो में रात कुछ जल्दी आती है

2 comments:

  1. Bahot hi behatareen bani hai sir....mazaa aag ya.

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  2. रोहित@ भाई हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया :)

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