Sunday, November 6, 2011

अँधेरा

सर्दियों में शाम कुछ जल्दी आती है

और अक्सर उदास कर जाती है

दूर कही उठता हुवा वो सिगडी का धुवा

और

सूरज के जाने के बाद तंग करने वाली

ठंडी हवाए


पेड़ो के लम्बे होते हुवे साये

और

बोझिल सन्नाटे में से किसी के गाने की आती हुवी आवाज


इन सब की जैसे अब आदत सी हो गयी है


दिये की लौ कभी कांपती हुवी

तो कभी अडिग हो कर जलती हुवी


मेरे अस्तित्व को चुनौती देती हुवी

मै उसे बुझा देता हु

क्योंकि मै उसकी चुनौती से डरता हु शायद

या फिर शायद

मुझे ये अँधेरा अच्छा लगने लगा है

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