मेरी जिंदगी
बड़ी अजीब सी जिंदगी है
रोज मै सुबह उठ के काम पे जाता हु
पर अक्सर ऐसा भी होता है
जब मै खुद को काम पे ले के जाता हु
एक अजीब सा एहसास होता है
मै पुरे दिन अपने आप को
खोजने की कोशिश करता हु
कभी कंप्यूटर की स्क्रीन में
तो कभी साथ वालो की अपरिचित निगाहों में
एक बोझिल सा दिन होता है वो
जिसे मै धकेलता हु अपने जिजीविषा से
सिर्फ इसी उम्मीद में
की शायद इसके खत्म होने पर
कुछ तो राहत मिलेगी की
या तो अगला दिन कुछ सौगात लायेगा
या फिर मुझे वो दिन देखने की जिल्लत ना उठानी होगी
खैर
बेतरतीब सा जब लौटता हु अपने कमरे पे
तो पाता हु खाली दीवारों पे टिकी हुवी एक छत
और टेबल पे पड़ी हुवी एक घडी
बेवजह अपनी मौजूदगी दर्ज कराती हुवे
तब मै खोजने लगता हु अपने वजूद को
उस घडी की टिक टिक में
जिसके काटें भागते है एक दुसरे के पीछे बेवजह
एक अंधी दौड़ में
अपने होने की सार्थकता को साबित करने की होड़ में
लगता है जैसे मेरी जिंदगी भी किसी
घडी के मानिंद उलझी हुई है
जबरन दौड़ती हुई एक चक्कर में
बगैर किसी मंजिल के
या फिर खाली दीवारों के जैसी
किसी छत का बोझ उठाये हुवे
जिनका होना वैसे तो जरुरी है
और वैसे देखे तो वो खाली है
फिर एक दिन
फिर एक उम्मीद
सुबह उठ के
काम पे जाना
या फिर
अपने आप को काम पे ले जाना
एक अविरत सिलसिला
कई वर्षो से चल रहा है
पता नहीं कब तक चलेगा
शायद जब तक घडी की
टिक टिक चल रही है
तब तक
या फिर जब तक
नियति इस घडी को
चला रही है
तब तक
बड़ी अजीब सी जिंदगी है
रोज मै सुबह उठ के काम पे जाता हु
पर अक्सर ऐसा भी होता है
जब मै खुद को काम पे ले के जाता हु
एक अजीब सा एहसास होता है
मै पुरे दिन अपने आप को
खोजने की कोशिश करता हु
कभी कंप्यूटर की स्क्रीन में
तो कभी साथ वालो की अपरिचित निगाहों में
एक बोझिल सा दिन होता है वो
जिसे मै धकेलता हु अपने जिजीविषा से
सिर्फ इसी उम्मीद में
की शायद इसके खत्म होने पर
कुछ तो राहत मिलेगी की
या तो अगला दिन कुछ सौगात लायेगा
या फिर मुझे वो दिन देखने की जिल्लत ना उठानी होगी
खैर
बेतरतीब सा जब लौटता हु अपने कमरे पे
तो पाता हु खाली दीवारों पे टिकी हुवी एक छत
और टेबल पे पड़ी हुवी एक घडी
बेवजह अपनी मौजूदगी दर्ज कराती हुवे
तब मै खोजने लगता हु अपने वजूद को
उस घडी की टिक टिक में
जिसके काटें भागते है एक दुसरे के पीछे बेवजह
एक अंधी दौड़ में
अपने होने की सार्थकता को साबित करने की होड़ में
लगता है जैसे मेरी जिंदगी भी किसी
घडी के मानिंद उलझी हुई है
जबरन दौड़ती हुई एक चक्कर में
बगैर किसी मंजिल के
या फिर खाली दीवारों के जैसी
किसी छत का बोझ उठाये हुवे
जिनका होना वैसे तो जरुरी है
और वैसे देखे तो वो खाली है
फिर एक दिन
फिर एक उम्मीद
सुबह उठ के
काम पे जाना
या फिर
अपने आप को काम पे ले जाना
एक अविरत सिलसिला
कई वर्षो से चल रहा है
पता नहीं कब तक चलेगा
शायद जब तक घडी की
टिक टिक चल रही है
तब तक
या फिर जब तक
नियति इस घडी को
चला रही है
तब तक
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