Monday, May 14, 2012

मेरी जिंदगी




बड़ी अजीब सी जिंदगी है



रोज मै सुबह उठ के काम पे जाता हु

पर अक्सर ऐसा भी होता है

जब मै खुद को काम पे ले के जाता हु

एक अजीब सा एहसास होता है



मै पुरे दिन अपने आप को

खोजने की कोशिश करता हु

कभी कंप्यूटर की स्क्रीन में

तो कभी साथ वालो की अपरिचित निगाहों में



एक बोझिल सा दिन होता है वो

जिसे मै धकेलता हु अपने जिजीविषा से

सिर्फ इसी उम्मीद में

की शायद इसके खत्म होने पर

कुछ तो राहत मिलेगी की

या तो अगला दिन कुछ सौगात लायेगा

या फिर मुझे वो दिन देखने की जिल्लत ना उठानी होगी



खैर

बेतरतीब सा जब लौटता हु अपने कमरे पे

तो पाता हु खाली दीवारों पे टिकी हुवी एक छत

और टेबल पे पड़ी हुवी एक घडी

बेवजह अपनी मौजूदगी दर्ज कराती हुवे



तब मै खोजने लगता हु अपने वजूद को

उस घडी की टिक टिक में

जिसके काटें भागते है एक दुसरे के पीछे बेवजह

एक अंधी दौड़ में

अपने होने की सार्थकता को साबित करने की होड़ में



लगता है जैसे मेरी जिंदगी भी किसी

घडी के मानिंद उलझी हुई है

जबरन दौड़ती हुई एक चक्कर में

बगैर किसी मंजिल के



या फिर खाली दीवारों के जैसी

किसी छत का बोझ उठाये हुवे

जिनका होना वैसे तो जरुरी है

और वैसे देखे तो वो खाली है



फिर एक दिन

फिर एक उम्मीद

सुबह उठ के

काम पे जाना

या फिर

अपने आप को काम पे ले जाना

एक अविरत सिलसिला

कई वर्षो से चल रहा है

पता नहीं कब तक चलेगा



शायद जब तक घडी की

टिक टिक चल रही है

तब तक

या फिर जब तक

नियति इस घडी को

चला रही है

तब तक

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