Thursday, December 29, 2011

जख्म

अब जब जख्म भर चले है तो

क्यों तुम मुझे याद आते हो


अब जाकर मै इस भुलावे में आया था

की मै तुम्हे भूलने लगा हु


फिर एक ब़ार मेरे जिंदगी में आ के

क्यों मुझे सताते हो


जानता हु ये द्वन्द है मेरा.. मेरे मन से ही

चेतन मन का अचेतन मन से


बड़ी मुश्किल से इस मन ने उस मन को समझाया है

अब फिर से क्यों उसे रुलाते हो


अब जब जख्म भर चले है तो

क्यों तुम मुझे याद आते हो


जिंदगी के लम्हों को उलझा के

मैंने इन सांसों को सुलझाया है


फिर एक ब़ार अपनी निगाहों से

सुलझी सांसों को क्यों उलझाते हो


अब जब जख्म भर चले है तो

क्यों तुम मुझे याद आते हो


अब मै लहरों से दोस्ती करके

समंदर के आगोश में जाना चाहता हु


तो फिर क्यों आवाज दे के

मुझे वापस बुलाते हो


अब जब जख्म भर चले है तो

क्यों तुम मुझे याद आते हो

Friday, December 16, 2011

तुम्हारी याद में...........................

जिंदगी किसी नदी के मानिंद अविरत ... अविचल बहती जा रही थी

की अचानक तुम्हारे मिल जाने से ये जैसे ये अपना रास्ता भूल गयी


चाहा तो कभी ना था इसने उस रास्ते पे चलना

जिस राह पे ये यु ही अचानक मूड गयी


अब तो आगे बढ़ने के सिवाय कोई चारा ना था

वैसे भी पीछे लौटना मेरी जिंदगी ने कभी सिखा ही नहीं


कभी सपने देखने की जिद तो कभी फ़ना होने का जूनून

संभल कर चलना तो इसने कभी सोचा ही नहीं


जिंदगी के ये दो किनारे किसे छोडू किसके साथ चलता रहू

ये तो शायद मुझे नदी से ही सीखना होगा


नदी भी तो जिंदगी भर दो किनारों के साथ चलती है

Saturday, November 26, 2011

जिंदगी तेरे नाम

सर्दियों की शाम अक्सर उदास होती है

एक अजीब सा सन्नाटा होता है

जो मुझे झझकोर देता है

और मै बैचैनी से

ढूंढने लगता हु

उस सूरज को

जिससे

अपने हिस्से

की मुट्ठी भर

धुप ले सकू

जिसकी

नर्म गर्माहट

मुझे तेरी

याद दिलाये

ताकि

मै

कुछ दिन

और

साँस ले सकू

Tuesday, November 15, 2011

पहेली

दिल अक्सर तुमसे खफा होता है

और फिर

तुम्हे मनाने का तरीका भी ढूंढ़ता है


ये बागी रहता तो मेरे सीने में है

पर हरवक्त तुम्हारे इशारो पर धड़कता है

Sunday, November 6, 2011

अँधेरा

सर्दियों में शाम कुछ जल्दी आती है

और अक्सर उदास कर जाती है

दूर कही उठता हुवा वो सिगडी का धुवा

और

सूरज के जाने के बाद तंग करने वाली

ठंडी हवाए


पेड़ो के लम्बे होते हुवे साये

और

बोझिल सन्नाटे में से किसी के गाने की आती हुवी आवाज


इन सब की जैसे अब आदत सी हो गयी है


दिये की लौ कभी कांपती हुवी

तो कभी अडिग हो कर जलती हुवी


मेरे अस्तित्व को चुनौती देती हुवी

मै उसे बुझा देता हु

क्योंकि मै उसकी चुनौती से डरता हु शायद

या फिर शायद

मुझे ये अँधेरा अच्छा लगने लगा है

Tuesday, August 23, 2011

डर

मै तब जैसा था

आज भी

वैसा ही हु

पर शायद

अब

तुम्हारा नजरिया ही बदल गया है

वैसे और भी कुछ बदला है

मेरी जिंदगी में

अब मैंने समंदर पे जाना छोड़ दिया है

मुझे डर है कही

वो अकेली नाव

किनारे की ठंडी रेत

नारियल के वो पेड़

समंदर की लहरें

चंपा के मासूम फूल

वो अजनबी जिसने हमें रास्ता बताया था

और वो पुलिस वाला जिसने हमें धमकाया था

हमने इकट्ठी की हुई सीपिया

रात की तनहाई

सुबह का सूरज

ये सब

तुम्हारे बारे में ना पुछ ले

क्या जवाब दूंगा मै उन्हें

की मैंने तुम्हे खो दिया

या अपने आप को

या की अब मै

खुद ही को नहीं

पहचानता

Saturday, August 6, 2011

उधार की जिंदगी

पता नहीं

क्यों

हम अपनी

मजबूरियों को

समझदारी का नाम देते है


घोट देते है गला

अपनी आकांक्षाओ का

ओढ़ कर लबादा

अपनी जवाबदारियों का


दबा देते है

अपनी अभिव्यक्ति को

पहन कर मुखौटा

किताबी लब्जों का


खरीदना चाहते है

खुशियों को

चंद रुपयों के बदले में

किसी सब्जी के मानिंद



कोशिश करते है

खुश होने की

लेकर उधार की जिंदगी


चुकाते रहते है

उस कर्ज को

अपनी सांसों से


और


बाट जोहते है

उस मुक्ति की

जिसे हमने


कब का


जिंदगी के बदले में

गिरवी रख दिया है

Wednesday, August 3, 2011

अल्फाज

अल्फाज

काफी सारे

कुछ तुमने कहे

और शायद कुछ मैंने भी

जो मैंने कहे थे वो अब भी मुझे याद है

और जो तुमने कहे थे

वो तो मै कभी भूल ही नहीं सकता


मुझे तो

वो अल्फाज भी याद है

जो तुमने कभी कहे ही नहीं

उसके लिए तुम्हारी आँखे ही काफी थी

जानता था की ये अल्फाजो का मायाजाल है

फिर भी उसमे उलझना अच्छा लगता था


वो शायद तुम्हारी हंसी का असर था

या फिर तुम्हारी मासूम आँखों का जादू था

जो तुम्हारी जुबां से ज्यादा बोलती थी


मै अब भी तय नहीं कर पा रहा हु की

मै तुम्हारी आँखों में

ज्यादा उलझता था या

तुम्हारी जुल्फों में

Friday, July 1, 2011

जिंदगी एक साँप सीढ़ी है

जिंदगी एक साँप सीढ़ी है

मै जब भी ऊपर जाना चाहता हु

साँप तैयार होता है

मुझे निचे लाने के लिए


कभी ये कर्ज की शक्ल में आता है

तो कभी मर्ज की शक्ल में


वैसे तो मै कोशिश करता हु की

इससे बच जाऊ

पर लगता है

इसकी पांसो से दोस्ती है


अक्सर मै इसकी नजर बचा के

ऊपर निकल गया हु

तब उसने मुझे इस कदर देखा है

जैसे मै ही इसको निगल गया हु


कभी ये

अफसर की अक्ल में होता है

तो कभी

किसी फर्जी दोस्त की शक्ल में


अमूमन

इसके चंगुल से बचना मुश्किल होता है

क्योंकि

जकड़ना इसकी फितरत है

और

शायद फंस जाना

मेरी


खैर

मै भी हारने वालो में से नहीं हु

वक़्त की बिसात पे

अपनी सांसों के पांसे फेकते रहूँगा

और

आज नहीं तो कल

खेल को जीत ही जाऊंगा

Friday, June 24, 2011

हालात

पथप्रदर्शक हो गए है पथभ्रष्ट

अब तो खुले आसमां के निचे भी दम घुटता है



जिनकी खातिर हम थे मरने को तैयार

उन्होंने खुदगर्जी में हमें कत्ल करना चाहा

अब तो खुले आसमां के निचे भी दम घुटता है



हालातो ने खीच दी है खरोचे सबके दिल पे

इन्सान की नियत ने इंसानियत पे कलंक लगा दिया है

अब तो खुले आसमां के निचे भी दम घुटता है



जिन्हें कभी देखते थे हम सर उठा के

आज उनकी वजह से सर झुकाना पड़ रहा है



पथप्रदर्शक हो गए है पथभ्रष्ट

अब तो खुले आसमां के निचे भी दम घुटता है



राहे हो गयी है अब अनजानी

और शक्ले हो गयी है अब अजनबी सी

अब तो खुले आसमां के निचे भी दम घुटता है



जिंदगी अब डरती है सांस लेने में

कही हवाँ में घुला जहर,

जेहन में ना उतर जाये

अब तो खुले आसमां के निचे भी दम घुटता है



पथप्रदर्शक हो गए है पथभ्रष्ट

अब तो खुले आसमां के निचे भी दम घुटता है

Saturday, June 11, 2011

एक " बारिश " मेरी अपनी.....

मुझे बारिशो में रोना अच्छा लगता है
ये बुँदे उन बूंदों में समां जाती है

और तुम्हे पता भी नहीं चलता है


ना सहा जाता है
और ना ही कहा जाता है
बस अब रहा नहीं जाता है


मेरे सपने मेरे आंसुओ में धुल जाते है
जब भी मै बारिशो में रोता हु
मेरे गम उन बूंदों में घुल जाते है
जब भी मै बारिशो में रोता हु


मुझे बारिशो में रोना अच्छा लगता है
ये बुँदे उन बूंदों में समां जाती है
और तुम्हे पता भी नहीं चलता है


मै कभी बारिशो में रोता हु
और कभी " बारिश " के लिए

जो भी है " बारिश " हर वक़्त मेरे जेहन में होती है
दिल में, दिमाग में और अक्सर

मेरे आंसुओ में


मुझे बारिशो में रोना अच्छा लगता है
ये बुँदे उन बूंदों में समां जाती है

और तुम्हे पता भी नहीं चलता है

उम्मीद है ये बारिश ख़ुशी के आंसू भी लाएगी
इस जिंदगी में ना सही

अगली जिंदगी में तो आएगी


मुझे बारिशो में रोना अच्छा लगता है
ये बुँदे उन बूंदों में समां जाती है

और तुम्हे पता भी नहीं चलता है

Tuesday, May 24, 2011

मै और तुम

जब भी

मै तुझसे

खफा होता हु

तो सोचता हु की

अब

तुझसे

कभी बात नहीं करूँगा

ठान लेता हु

बस

अब बहुत हो चुका

पर

हर बार

हार जाता हु

तुझसे भी

और

अपने आप से भी

पर वो हार भी

तो

कही अन्दर से

मुझे अच्छी लगती है


शायद

मै हर वक़्त

यही

मन्नत मांगता हु

की मै कभी

कभी भी

तुम से

जीत ना पाऊ

और

खुद से

भी

Sunday, May 22, 2011

आग

बस्ती जल रही थी

आग फैली थी

चारो तरफ

सिर्फ

आग

बस

आग

भड़क रही थी

हर तरफ

बस्ती में

पेट में

मन में

आग

दुःख की

गुस्से की

प्रतिशोध की

पर

ना तो वो आग

उनके आंसू सुखा पा रही थी

और

ना ही उनके आंसू

उस आग को बुझा पा रहे थे

Wednesday, May 18, 2011

चाँद

तेरा मेरा हमराज ये चाँद

इस काली स्याह रात में

राह भटकता होगा चाँद

कभी तुम्हे तो कभी मुझे

याद करता होगा चाँद

कभी समंदर की लहरों में

अपने आप को खोजता होगा चाँद

तो कभी चंपा के फूलों के पीछे

आंसू बहाता होगा चाँद


तेरे मेरे जिंदगी के कितना करीब है ये चाँद


वैसे तो मैंने चाँद को

हर रोज तिल तिल टूटते हुवे देखा है

कभी खुदसे तो कभी

दुसरो से रुठते हुवे देखा है


शायद उसकी उम्मीद

उसे फिर ले आती है

कभी उसे

तो कभी मुझे रुलाती है


शायद..... शायद

मेरी उम्मीदों का चाँद भी

कुछ इस कदर ही

बनता बिखरता होगा

कभी खुद रोता तो

कभी मुझे रुलाता होगा

बारिश

जिंदगी भर झुलसता ही रहा

कभी सूरज की अगन से

तो कभी मन की तपन से


चार दिनों के लिए आई थी तुम बारिश बन के


अब वही यादें

आंसू बन कर

मेरी आँखों को भीगा रहे है

Sunday, May 15, 2011

खुदकुशी

खुदकुशी

जिंदगी में कई ब़ार सोचा है की

ख़ुदकुशी कर लू

इस तरह घुट घुट के मरने से तो अच्छा है

एक ही ब़ार में खुद को मुक्त कर लू


पर फिर दिखता है

वो चेहरा जिसने मुझे बांध रखा है

या वो सपने जिन्होंने

ये दिल थाम रखा है


अब भी उम्मीद है

तुमसे मिलने की

जानता हु ये

मृग मरीचिका है

पर कुछ और जीने का

ये बहाना बना रखा है



हर रोज सांसों को बची हुई

रेजगारी की तरह खर्च कर रहा हु

और हर सुबह ऊपर वाले साहूकार से

नया कर्ज मांग रहा हु


जानता हु की ये क़र्ज़ चुका ना पाउँगा

और किसी दिवालिये की तरह

जिंदगी के बाज़ार से उठ जाऊंगा


पर हर रोज जीतने की उम्मीद में नया दाव लगा रहा हु

कभी खुद को तो कभी जिंदगी को आजमां रहा हु



एक गुजारिश है तुझसे

इसके पहले की साहूकार अपना हिसाब मांग ले

मुझसे एक ब़ार मिल जा

ताकि मुझे ख़ुदकुशी से पहले ही

मुक्ति मिल जाये

Monday, May 9, 2011

रिश्ता

मेरा,

जिंदगी और दर्द से अजीब सा रिश्ता है

जिंदगी ने मुझे दर्द दिया

और अब

दर्द मुझसे जिंदगी ले लेगा

Sunday, May 8, 2011

वो एक बहती हुई नदी

वो एक बहती हुई नदी
बिलकुल मेरी जिंदगी के मानिंद

वो एक बहती हुई नदी
अविरत - अविचल अपने गंतव्य की और बढती हुई

जैसे किसी से मिलने की आस में
दौड़ रही है वो प्यासी नदी

लहराती बलखाती अपने ही मस्ती में बढती हुई
मानो सूरज का आना और जाना उसने देखा ना हो

कभी एकदम शांत और सोच में डूबी हुई
तो कभी विकराल रूप धारण करके फुफकारती हुई

कभी ख़ुशी में आ के सबके साथ अठखेलिया करती
और कभी गुस्से में उफन के सबको मिटाने को दौड़ती

कभी सबको अपने आगोश में लेती
तो कभी अपने आप में सिमट के ख़ामोशी से बहती हुई

वो एक बहती हुई नदी
बिलकुल मेरी जिंदगी के मानिंद

दोनों किनारों के बिच में बहती हुई

जैसे दोहरी जिंदगी जी रही हो

बिलकुल मेरी जिंदगी के मानिंद

अपने आप में उलझी हुई

थोड़ी सी खोई हुई

कुछ अलसाई सी

थोड़ी सी सोई हुई

कभी अचानक जागती सी

थोड़ी बोखलाई सी



पर एकदम अकेली सी

वो एक बहती हुई नदी
बिलकुल मेरी जिंदगी के मानिंद

Tuesday, May 3, 2011

क़र्ज़

एक कोशिश है तेरी यादों का क़र्ज़ मेरे आंसुओ से चुकाने की

सिर्फ एक कोशिश ही है कामयाबी की उम्मीद नहीं


वैसे भी मुझे पता है मै तेरा क़र्ज़ ना उतार पाउँगा

और ये भी चाहता हु की ताउम्र तेरा कर्जदार रहू


तेरी हंसी तेरी आँखें उनकी यादें बड़ी अनमोल है

जिंदगी भी लुटा दू एक कतरा ना चुका पाउँगा


मेरे इंतजार को रश्क है उस मल्लाह से

जो किनारे पे करता है इंतजार लहरों का


तकलीफ मुझे तेरे इंतजार से नहीं

डरता हु कही सांस दगा ना दे जाये


सिर्फ एक तेरा हक है मेरी जिंदगी पे


या तो इसे अपना ले


या फिर


कर दे रिहा इसे अपनी कैद से

Monday, April 25, 2011

खानाबदोश

मानो तो ये जिंदगी मस्त है न मानो तो पस्त है

हर कदम पे तूफान है तो उसे पार करने की ताकत भी है


हर अगले मोड़ पे धोका है तो

कभी कभी ठंडी हवा का झोका भी है


कभी फाकों में भी मस्ती का आलम है

तो कभी भरे पेट भी किसी बात का गम है


कभी यारों का साथ है

और कभी दुश्मनों की बारात है


वैसे तो ये जिंदगी का दस्तूर है

पर शायद ये बेवजह ही मगरूर है


खैर जिंदगी तो जिंदगी है

इसपे मरना मेरी बंदगी है


शायद इसकी बेरुखी मेरी जान लेगी


या फिर


इसकी चाहत में मै दम तोडूंगा

Sunday, April 17, 2011

रोटी

बदहवासी की हालत में

बेतहाशा भागता हुवा वो

कभी आगे तो कभी पीछे देखता हुवा

हर बार लगने वाली ठोकरों से खुद को संभालता हुवा

और पीछे भागने वाली भीड़ से खुद को बचाता हुवा


भीड़ कभी गालिया निकालती तो कभी

पत्थर उछालती

अपने उन्माद को और बढाती हुई


धीरे धीरे भीड़ नजदीक आने लगी

अब उसका भी दम फूलने लगा

जल्दी ही भीड़ ने उसको दबोच लिया

वो निचे था और जनता उसके ऊपर


बड़ी मुश्किल से जतन की हुई

हाथ की रोटी

मिटटी में मिल चुकी थी

और साथ ही में

मिल गयी थी मिटटी में

उसकी भूक

और

आँख से गिरते हुवे आंसू

Tuesday, April 12, 2011

काफी जिद्दी सी मेरी जिंदगी

बड़ी अजीब है मेरी जिंदगी
कभी हसाती कभी रुलाती

कभी खुद रूठती
तो कभी मुझे सताती

काफी जिद्दी सी मेरी जिंदगी

कभी सूरज में तपती
तो कभी बारिश में भीगती

कभी शहद से भी मीठी तो
कभी समंदर से भी नमकीन मेरी जिंदगी

काफी जिद्दी सी मेरी जिंदगी

कभी बेतहाशा दौड़ती
और कभी मुझे दौड़ाती

अपने नखरो से मुझे
लुभाती ये जिंदगी

काफी जिद्दी सी मेरी जिंदगी

Sunday, April 10, 2011

और फिर खुद को खत्म कर लूँगा

फिर एक दिन तमाम हुवा
और तेरी चाहत को पाने में
मै फिर नाकाम हुवा

रोज की तरह
मेरी आरजू तेरी
बेरुखी की वजह से
तड़पती रही

रोज की तरह
सूरज का आना और
चाँद के आने तक रुकना
ऐसा लगता है
मानो मेरे अकेलेपन का
अहसास उसे भी हो चुका है

तुझे शायद लगे ना लगे
पर मुझे पता है की
ये पल जैसे
तेजाब की बुँदे
बन कर मेरे
वजूद को जला रहे है

पर मै हर रोज आऊंगा
अपने आप को जलाऊंगा

कोई तो दिन होगा जब
जब तुझे मेरी याद आएगी
मेरे आंसू
मेरी मुहोब्बत
तुझे जलाएगी

और अगर तू समझ ना पाई
तो मै समझ लूँगा

सिर्फ और सिर्फ एक ब़ार
तुझे याद करूँगा

और फिर खुद को
खत्म कर लूँगा

Friday, April 8, 2011

जैसा की अक्सर होता है

जैसा की अक्सर होता है

कल भी पूरी रात मै सो न सका

कोशिश करता रहा

सपने देखने की


पर उसके लिए

नींद का आना भी तो जरुरी है ना

और वो तो जैसे मुझसे नाराज हो गयी थी

बिलकुल तुम्हारी तरह

मेरा उसको मनाने का भी कोई फायदा नहीं हो रहा था

वो भी रूठी हुवी थी

बिलकुल तुम्हारी तरह


कुछ देर बाद समझ में आया

नींद ना आने की वजह

उसकी नाराजगी नहीं

बल्कि तुम्हारी मौजूदगी है

वैसे तुम्हारी मौजूदगी के लिए

तुम्हारा होना जरुरी नहीं होता

तुम हर वक़्त मेरे पास ही होती हो

नहीं तुम तो........

तुम तो जैसे मेरे वजूद का एक हिस्सा हो

या फिर शायद मै तुम्हारे वजूद का हिस्सा हु


खैर .........
उलझ गया था अपने आप से

तय नहीं कर पा रहा था

की तुम्हारे नर्म हाथों पे लगी ताजी मेहंदी की खुशबु मुझे दीवाना बनाती है या

फिर तुम्हारे गेसुओ में लिपटे हुवो फूलों की महक

तुम्हारी हंसी

मेरे पागलपन की वजह है या

तुम्हारी आँखें


एक बात तो जरुर है

कभी तुम

कभी तुम्हारी हंसी

कभी गीली मेहँदी की खुशबु

कभी जुल्फों की महक

कभी तुम्हारी आँखों का जादू

एक एक करके मुझे सताते है

और
रोज मुझे जगाते है

बस अब

मेरी तुमसे एक ही गुजारिश है

एक ब़ार आने की

थोडा वक़्त बिताने की

वादा करता हु

ज्यादा वक़्त नहीं लूँगा

तुम्हारे आगोश में जाते ही

हमेशा के लिए सो जाऊंगा

Monday, April 4, 2011

फासले

फासले

कुछ चाहे

कुछ अनचाहे

धीरे धीरे बढ़ते हुवे

तुम्हारे मेरे दरमियान

और मेरी सांसो के बिच भी

कई ब़ार मै तय नहीं कर पाता हू

की सांस लेना ज्यादा मुश्किल है

या फिर तुमसे मिलने की कोशिश करना

वैसे एक बात तो तय है

अगर मै तुमसे नहीं मिल सकता तो

मुझे सांस लेने की भी जरुरत नहीं है

पता नहीं अब कितना वक़्त बचा है

सोचता हु सांस लेने से बेहतर है

एक ब़ार फिर तुमसे मिलने की कोशिश ही कर लू

इस उम्मीद के साथ की शायद

आंखरी सांस तुम्हारी बाँहों में ले लू

और सारे फासले खत्म हो जाये

वादे

हर ब़ार एक नयी उम्मीद लेकर आता हु तेरे शहर में

की शायद इस ब़ार तो तुझसे मुलाकात हो जाये

और फिर हमेशा की तरह मायूस हो के चला जाता हु

अगली ब़ार मिलने का सपना देखते हुवे


जानता हु फिर भी हर ब़ार उम्मीद लगाता हु

और हर ब़ार वो ही भूल करता हु

तेरे वादे पे ऐतबार करने की

जिंदगी

कई टुकड़ो में बिखर गयी है ये जिंदगी

लगता है इन्हें सहेजते सहेजते वक़्त कट ही जायेगा

मुलाक़ात

गर मुलाक़ात न हो तो तकलीफ़ सह लेंगे हम

पर लम्हों को बांध के मुलाक़ात हमें मंजूर नहीं

Sunday, April 3, 2011

मैंने देखा था एक ख्वाब

मैंने देखा था एक ख्वाब

झील सी आँखों का

खनकती हंसी का

शहद सी बोली का



अब भी रखा है उसे सहेज के

अपने तकिये के निचे

मन के किसी कोने में

यादों की चौकट में

मेरी सांसो में

मेरी धड़कन में

तुम्हारी हंसी में

मेरे आँसुओ में



देखता हु उसे निकाल के

जब भी होता हु अकेला


या फिर


जब होना चाहता हु अकेला,

यादों में तुम्हारी खोने के लिए

Wednesday, March 9, 2011

मैंने कई बार चाहा है

मैंने कई बार चाहा है
खुद ही खुद को खत्म करना

और कोशिश भी की है

नहीं मै आत्महत्या की बात नहीं कर रहा हु

जानता हु वो बुजदिलो का काम है

मै तो बात कर रहा हु

शायद कही उससे आगे

जब जरुरत होती है

अपने विचारो का गला घोटने की

अपनी अभिव्यक्ति को मिटाने की

जानता हु की वो सबसे बड़ी हार है

शायद वो सब करना भी मेरी मज़बूरी थी

या अब भी है

या फिर समझोता था

कुछ खुद से और कुछ ज़माने से

कुछ सांसे उधार लेने का

ताकि जिंदगी चला सकू

अगली लढाई के लिए


जो मै लढ़ रहा हु

ताकि मेरी अगली नस्ल

साँस ले सके

और उन्हें जरुरत न पड़े

लढने की

अपने आप से

और इस समाज से

छोटी छोटी बातों के लिए

और गिरना न पड़े

अपनी ही नजरो में

जैसे मै गिरा हु

कई बार

फिर से उठने के लिए

Tuesday, March 1, 2011

परीक्षा

जब अक्सर चलने लगती है धुल भरी आंधिया

और गिरने लगते है पेड़ो से अनवरत पत्ते,


भरी दोपहरी में आती है

पत्तो के पीछे से कोयल की आवाज,


या फिर २ पंक्तिया पढने के बाद ही

अक्षर होने लगते है धुंधले !


जब साइकिल के चक्के करने लगते है

दोस्ती सड़क के डामर से,


और आते जाते मन बहका जाती है

पकी इमली की खुशबु ,


कभी सिर्फ सुनाई देती है

कुल्फी वाले के घंटी की आवाज


या फिर...........

पानी पीते ही लगने लगती है प्यास


तो ऐसा लगता है

मानो पेपर बिघड गया हो

Monday, February 14, 2011

जिंदगी एक सराय है

जिंदगी एक सराय है और मै एक मुसाफिर

भटक रहा हु यहाँ से वहा जिंदगी की तलाश में


जंगल, परबत, नदी, नाले, खेत, खलिहान

गाँव, शहर, समंदर, रेगिस्तान,


कभी अपनों की छाव में

तो कभी परायो के गाँव में


जहा भी मिला वहा डेरा जमाया

कभी खुद से पकाया तो कभी दूसरो ने खिलाया

कभी पेड़ो के निचे तो कभी तालाब के किनारे

धरती पे पड़ा आसमान को ओढा


कभी अँधेरी रातो में जागा

तो कभी चांदनी रातो से भागा

कभी मेले में तो कभी अकेले में

हरवक्त खुद को ढूंडा पर

शायद ही कभी खुद को पाया


जिंदगी एक सराय है और मै एक मुसाफिर

भटक रहा हु यहाँ से वहा जिंदगी की तलाश में


जब भी देखा तो मुझे खुदमे

उसका ही साया नजर आया


मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरूद्वारे

हर जगह ढूंडा उसको मारे मारे


किसीने कहा उसने देखा है उसे

तो किसी ने उसका पता बताया


मैंने तो उसे पाया है हर उस जगह पे....

छोटे भाई को गोद में उठाके गुब्बारे बेचती उस छोटी लड़की में

खेत में हल चलाके थक के मेढ़ पे बैठे उस किसान में

जंगल में मवेशियों को चराते हुवे उस चरवाहे में

माँ के हाथ की बनी हुवी रोटी में

दोस्त के गुस्से में

पैर में चुभे हुवे कांटे में

मधुमक्खी के डंक में

अकेली नाव में बैठे उस मल्लाह के गाने में

पानी में पड़ी चाँद की परछाई में

तेरी आँखों में तेरी हंसी में

शायद..... मैंने पाया है या फिर खोया है......


जिंदगी को जिंदगी में

Friday, February 11, 2011

अपने हिस्से का सूरज

घर में ही रह पाता काश मै
बेघर हो गया रोटी की तलाश में

चाहता था लाना साथ में अपनी जमीं भी
पर सिर्फ ला पाया मुट्ठी भर आकाश मै

थोड़ी सी यादें भी है कुछ अच्छी कुछ बुरी
थोडा दर्द और उसके काफी ज्यादा अहसास भी

और लाया हु अपने हिस्से का सूरज
जिसकी तपन में जला रहा हु अपने अहसास मै

Sunday, February 6, 2011

पहाड़ो में रात कुछ जल्दी आती है

आज कुछ यु ही भटकता रहा दिन भर पहाडियों में
मै भी और मेरा मन भी

चलता रहा उन पगडंडियों पर जो शायद बनी है
चरवाहों के रोज एक ही राह पे चलने से
शायद भेड़ो के साथ रह रह के वो भी एक ही राह चलने लगे है
अब तो लगता है मै भी कुछ उसी राह पे चल रहा हु

मै हर उस राह पर चला जो मुझे तुम्हारी ओर ले जाती थी
या फिर शायद मेरी हर राह तुम्हारी ओर ही जाती है

कई बार मै यु ही गिनता रहा देवदार के उन दरख्तों को
जो अब भी अविचल खड़े है ओर लगता है सदियों तक ऐसे ही खड़े रहेंगे

मुझे रश्क हो आया उनकी दीवानगी पे
पता नहीं किसका इंतजार कर रहे है वो

देवदार मुझे बड़ी अजीब निगाहों से देखते रहे
जैसे उन्हें भी मेरी दीवानगी समझ में आ रही हो

पता नहीं कब तक यु ही सोचते हुवे भटकता रहा
या भटकते हुवे सोचता रहा

सुनाई दी जब दूर से गिरजे की घंटिया तब पाया
की शाम के धुंधलके में साये लम्बे होने लगे है
ओर किसी पहाड़ी के ऊपर उठ रही है धुवे की लकीरे

इसके पहले की चाँद आकर मुझसे सवाल पूछे
मुझे अब वापस लौट जाना चाहिए

लगता है शायद अब तुम भी नहीं आओगे
वैसे गलती तुम्हारी नहीं है

पहाड़ो में रात कुछ जल्दी आती है

Saturday, February 5, 2011

मन फिर भागता है बचपन की ओर

मन फिर भागता है बचपन की ओर

वो गली में खेलना गिल्ली डंडा और कंचे

या फिर भागते रहना एक दुसरे के पीछे

बार बार गिरना और घुटनों का फूटना

और तकलीफ दर्द की नहीं सिर्फ माँ के डाटने की

अँधेरा गहराते ही डर सताता था अँधेरे का नहीं

घर में पिताजी पढाई के बारे में पूछेंगे उसका



बड़ा अच्छा था वो बचपन जब साथी

सब कुछ लगते थे.... शायद

माँ बाप से भी बढ़कर क्योंकि

वो नहीं पूछते थे पढाई के बारे में

और शायद ही किसी को तकलीफ़ हुई हो

किसी और के नंबर १ होने की

ये तो अब हम जलते है एक दूसरे से एक दूसरे की

तरक्की से और उसे professional approach कहते है



अब भी याद है गर्मियों की रात

जब आता था वो कुल्फी वाला

मटके में लेकर कुल्फी जिसके चारो और होता था

लपेटा हूवा वो लाल कपड़ा

और लालटेन की रोशनी से दमकता हुवा उसका चेहरा

बड़े प्यार से हमें कुल्फी खिलाता था वो



पता नहीं जिंदगी में बचपन सिर्फ एक ब़ार क्यों

आता है और वो भी सिर्फ थोड़े समय के लिए


मन फिर भागता है बचपन की ओर

Friday, February 4, 2011

कुछ कही कुछ अनकही

गर अब तुम्हारे मिजाज ठीक हो और तुम्हे चंद लम्हों की फुरसत हो
तो जरा हमें भी याद कर लेना...हम तो तुम्हारी याद में खुद को भुलाये बैठे है

पहले खुद के बारे में सोचने के लिए वक़्त नहीं था
और अब खुद के बारे में सोचने में डर लगता है

वैसे अब मुझे समंदर किनारे चलने से भी डर लगता है
गिरते वक़्त थामने के लिए तुम्हारा हाथ जो नहीं है

पर फिर मुझे इस बात की परवाह भी नहीं की जिंदगी के कितने लम्हे बचे है
आरजू है की एक बार सिर्फ एक बार तुम्हारी आँखों को देख सकू

एक शहर जो मेरे लिए अजनबी था उसे तुम्हारी मौजूदगी ने अपना बना दिया
अब जब तुम ही दूर हो गए हो तो क्या फर्क पड़ता है मै किसी भी शहर में रहू

माना की अब तुम्हारे पास मेरे लिए वक़्त नहीं और अब तुम्हे मेरी जरुरत भी नहीं
पर साथ बिताये लम्हों की याद तुम्हे भी आती तो होगी...सताती भी होगी

Monday, January 17, 2011

अगली सुबह तक

एक अकेली लम्बी उदास शाम

अंतहीन सन्नाटे से और भी लम्बी होती हुवी

और अपनी बोझिल रफ़्तार से रात की और बढती हुवी

गली में दूर दूर तक कोई नहीं

ना इस छोर पे ना ही उस छोर पे

दूर कोने के खम्बे पे जलता हुवा एक मद्धिम बल्ब

अपनी पीली बीमार रोशनी (?) से माहोल को और बीमार बनाता हुवा

गली का एक मात्र पेड़ भी अपने अकेलेपन से बचने के लिए इधर उधर देख रहा है

जैसे किसी आवारा कुत्ते को तलाश रहा हो

कभी कभी सन्नाटे को चीरती हुवी चौकीदार की सिटी या फिर

डंडे को जमीं पे पटकने की आवाज़

ये कभी दिखाई नहीं देता.... कभी भी

खुद ही के वजूद से जूझता हुवा

मानो उसका होना भी एक धोखा है

इस सन्नाटे से बचने के लिए मै लौट जाता हु अपने कमरे पे

काफी बोझिल कदमो से जैसे अपने आप को धकेल रहा हु उस सन्नाटे से दूर

पर जब कमरे के अन्दर देखता हु तो लगता है जैसे सिर्फ दृश्य बदला है माहोल नहीं

खाली कमरे के अन्दर का वो तनहा सन्नाटा गोया

बाहर के सन्नाटे से अपने वजूद को बड़ा करता हुवा

बड़ा अजीब सा कभी कभी जैसे सन्नाटा भी खाली लगता है

मानो वो भी खाली खाली महसुस कर रहा हो

अपने आप में सिमटा हुवा

खाली कमरे की खाली दीवारे

वैसे एक अकेली छिपकली है जो कभी कभी

दिवार के अकेलेपन को दूर करने की कोशिश करती है

या फिर दिवार से मिल के खुद के अकेलेपन को पता नहीं

दरवाजे के खुलने के आवाज से मै खुद ही चौक जाता हु

जैसे कही जबरदस्ती घुस रहा हु

फिर वही रोज की कोशिश दीवारों को पहचानने की

और खुद से ही अपनापन जताने की

शायद........ शायद..........

एक थकी हुई सी कोशिश खुद को बहलाने की

अगली सुबह तक खुद को उलझाने की

ताकि फिर एक बार सूरज मुझे

मदद करे खुद को पहचानने में

और ले चले एक बार फिर जिंदगी की और

जिसके इंतजार में सुबह की शाम हुई है

ये जिंदगी तमाम हुई है

Sunday, January 16, 2011

राग

कधी तरी मी असाच रागावतो कुणावर ही

आणि मग विचार करतो

की मी का रागावलो

नंतर मला कळते की मी स्वत वरच रागावलो आहे

पण ते कळे पर्यंत उशीर झालेला असतो

कुणाला तरी काही तरी बोललो असतो

कुठे तरी काही तरी बिनसले असते

राग येतो मला माझा आणि बहुतेक तुझा ही

नाही फक्त माझाच येतो

आणि मग मी विसरायचा प्रयत्न करतो

सगळेच जे आपल्यात घडले आहे ते

आणि जे घडायचे राहून गेले ते पण

पण ते विसरता येत नाही

का ते माहित नाही

आणि मग अजून राग येतो तुझा

पण रागावतो मी माझ्यावरच

कारण तुझ्यावर अजूनही रागावता येतच नाही मला