पता नहीं
क्यों
हम अपनी
मजबूरियों को
समझदारी का नाम देते है
घोट देते है गला
अपनी आकांक्षाओ का
ओढ़ कर लबादा
अपनी जवाबदारियों का
दबा देते है
अपनी अभिव्यक्ति को
पहन कर मुखौटा
किताबी लब्जों का
खरीदना चाहते है
खुशियों को
चंद रुपयों के बदले में
किसी सब्जी के मानिंद
कोशिश करते है
खुश होने की
लेकर उधार की जिंदगी
चुकाते रहते है
उस कर्ज को
अपनी सांसों से
और
बाट जोहते है
उस मुक्ति की
जिसे हमने
कब का
जिंदगी के बदले में
गिरवी रख दिया है
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