फिर एक दिन तमाम हुवा 
और तेरी चाहत को पाने में 
मै फिर नाकाम हुवा  
 
रोज की तरह 
मेरी आरजू तेरी 
बेरुखी की वजह से  
तड़पती रही 
 
रोज की तरह 
सूरज का आना और 
चाँद के आने तक रुकना
ऐसा लगता है  
मानो मेरे अकेलेपन का 
अहसास उसे भी हो चुका है           
तुझे शायद लगे ना लगे 
पर मुझे पता है की 
ये पल जैसे 
तेजाब की बुँदे 
बन कर मेरे 
वजूद को जला रहे है 
पर मै हर रोज आऊंगा 
अपने आप को जलाऊंगा 
कोई तो दिन होगा जब 
जब तुझे मेरी याद आएगी 
मेरे आंसू 
मेरी मुहोब्बत 
तुझे जलाएगी 
और अगर तू समझ ना पाई 
तो मै समझ लूँगा 
सिर्फ और सिर्फ एक ब़ार 
तुझे याद करूँगा 
और फिर खुद को 
खत्म कर लूँगा
अभय..तुम्हारी कविताओं में बहुत चुपचाप चीखता सा दर्द होता है..सिहरा देने वाली कवितायेँ..अवसाद को यूँ शब्दों में ढल जाने दो..बहुत मुमकिन है दर्द कुछ कम हो जाये..मेरी शुभकामनायें..
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