एक अकेली लम्बी उदास शाम  
 
अंतहीन सन्नाटे से और भी लम्बी होती हुवी 
 
और अपनी बोझिल रफ़्तार से रात की और बढती हुवी  
 
गली में दूर दूर तक कोई नहीं 
 
ना इस छोर पे ना ही उस छोर पे 
 
दूर कोने के खम्बे पे जलता हुवा एक मद्धिम बल्ब 
 
अपनी पीली बीमार रोशनी (?) से माहोल को और बीमार बनाता हुवा  
 
गली का एक मात्र पेड़ भी अपने अकेलेपन से बचने के लिए इधर उधर देख रहा है 
 
जैसे किसी आवारा कुत्ते को तलाश रहा हो 
 
कभी कभी सन्नाटे को चीरती हुवी चौकीदार की सिटी या फिर 
 
डंडे को जमीं पे पटकने की आवाज़  
 
ये कभी दिखाई नहीं देता.... कभी भी 
 
खुद ही के वजूद से जूझता  हुवा 
 
मानो उसका होना भी एक धोखा है
 
इस सन्नाटे से बचने के लिए मै लौट जाता हु अपने कमरे पे 
 
काफी बोझिल कदमो से जैसे अपने आप को धकेल रहा हु उस सन्नाटे से दूर
 
पर जब कमरे के अन्दर देखता हु तो लगता है जैसे सिर्फ दृश्य बदला है माहोल नहीं 
 
खाली कमरे के अन्दर का वो तनहा सन्नाटा गोया 
 
बाहर के सन्नाटे से अपने वजूद को बड़ा करता हुवा
 
 बड़ा अजीब सा कभी कभी जैसे सन्नाटा भी खाली लगता है 
 
मानो  वो भी खाली खाली महसुस कर रहा हो
 
अपने आप में सिमटा हुवा 
 
खाली कमरे की खाली दीवारे 
 
वैसे एक अकेली छिपकली है जो कभी कभी 
 
दिवार के अकेलेपन को दूर करने की कोशिश करती है 
 
या फिर दिवार से मिल के खुद के अकेलेपन को पता नहीं 
 
दरवाजे के खुलने के आवाज से मै खुद ही चौक जाता हु 
 
जैसे कही जबरदस्ती घुस रहा हु 
 
फिर वही रोज की कोशिश दीवारों को पहचानने की 
 
और खुद से ही अपनापन जताने की 
शायद........ शायद..........  
 
एक थकी हुई सी कोशिश खुद को बहलाने की 
अगली सुबह तक खुद को उलझाने की 
ताकि फिर एक बार सूरज मुझे 
मदद करे खुद को पहचानने में 
और ले चले एक बार फिर जिंदगी की और
जिसके इंतजार में सुबह की शाम हुई है 
ये जिंदगी तमाम हुई है
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