रिश्ते :
बनते बिघडते, टूटते सवरते, रोते सिसकते हसते हँसाते,
जायज़ नाजायज़, कुछ अपने कुछ पराये,
कई बार Facebook के रिश्ते नजदीक हो जाते है तो कई बार पास के रिश्ते भी दूर हो के Facebook तक सिमित हो जाते है
कुछ चाहे कुछ अनचाहे, कुछ स्वप्निल तो कुछ बोझिल,
कुछ मन को छुने वाले और कुछ अनछुए से
कुछ पास हो के भी दूर और कुछ दूर हो के भी पास
कुछ याद ना आने वाले और कुछ याद आने वाले
तो कुछ याद आ के रुलाने वाले
कुछ पक्के तो कुछ कच्चे
कुछ सुबह की पहली कच्ची धुप जैसे मेरे मन को सहलाते हुवे तो
कुछ बारिश की पहली फुहारों जैसे मुझे अन्दर बाहर से भीगा देने वाले
कुछ तुम्हारी आँखों जैसे गहरे और
कुछ तुम्हारी हंसी जैसे निश्चल
कुछ ताश के पत्तो के महल जैसे कमजोर तो
कुछ मेरी चाहत जैसे पुरजोर
लोग मिलते है और रिश्ते बन जाते है
कुछ लोग कोशिश करते है की रिश्ते ना बने और कुछ करते है की बन जाये
मुझे समझ में नहीं आता की जब लोग रिश्ते बनाते है या बनने देते है तो
उसे इतनी आसानी से तोड़ कैसे देते है या यु कहो की टूटने कैसे देते है
क्या उन्हें तकलीफ नहीं होती है और होती है तो वो दिखती क्यों नहीं
या वो दिखाना नहीं चाहते है, और उससे क्या हासिल होता है
कम से कम मै ये समझ नहीं पा रहा हु,
मुझे तो बड़ी तकलीफ होती है
शायद मै ज़माने से थोडा पीछे हूँ,
पर लगता है मै जहाँ हु वही ठीक हु,
मुझमे ना उन जैसे बनने की ना ताकत है........
और ना ही चाहत है
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