Sunday, April 10, 2011

और फिर खुद को खत्म कर लूँगा

फिर एक दिन तमाम हुवा
और तेरी चाहत को पाने में
मै फिर नाकाम हुवा

रोज की तरह
मेरी आरजू तेरी
बेरुखी की वजह से
तड़पती रही

रोज की तरह
सूरज का आना और
चाँद के आने तक रुकना
ऐसा लगता है
मानो मेरे अकेलेपन का
अहसास उसे भी हो चुका है

तुझे शायद लगे ना लगे
पर मुझे पता है की
ये पल जैसे
तेजाब की बुँदे
बन कर मेरे
वजूद को जला रहे है

पर मै हर रोज आऊंगा
अपने आप को जलाऊंगा

कोई तो दिन होगा जब
जब तुझे मेरी याद आएगी
मेरे आंसू
मेरी मुहोब्बत
तुझे जलाएगी

और अगर तू समझ ना पाई
तो मै समझ लूँगा

सिर्फ और सिर्फ एक ब़ार
तुझे याद करूँगा

और फिर खुद को
खत्म कर लूँगा

1 comment:

  1. अभय..तुम्हारी कविताओं में बहुत चुपचाप चीखता सा दर्द होता है..सिहरा देने वाली कवितायेँ..अवसाद को यूँ शब्दों में ढल जाने दो..बहुत मुमकिन है दर्द कुछ कम हो जाये..मेरी शुभकामनायें..

    ReplyDelete